
पढना अच्छा लगता है. पढते-पढते जब मन के भाव आकार लेने लगते तो लिखने की कोशिश करता हूँ। सीखने की जिज्ञासा है।
1.
हलकी बरसातों से गर्मियां बढ़ गयी है मिटटी की खुशबू भी आ रही है कुछ तो भींगा होगा कोई कही से तो कोई कविता निकली होगी किसी पागल ने कही कुछ उखेरा होगा
बादलों पर फिर कविता को सोच नहीं बोल सकते कुछ सोच के नहीं लिखता कोई लिखने की ज़िद में कोई नहीं लिख पाता कुछ शब्द आते हैं अचानक से कागज़ों पर उतर गए तो पंक्तियाँ बन गयी यादों की सिसकियाँ मन की चंचलता शब्दों से प्रेम
कविता है
कहीं भी ,कभी भी , कुछ भी शब्दों की माला फिरो ली
कविता है|| 2.
नदी से किनारे सटा हुआ घर और घाट पर एक मंदिर पीपल के पेड़ नीचे ताश खेलते लोग आज भी जाता हूं तो मिलते है लोग पर चेहरे बदले हुये हैं नदी भी लगभग आधी सूख चुकी है वो शोर नहीं है जो घर के बरामदे से ही सुनाई देता था लगता है नदी के उस पार कोई नहीं रहता सिर्फ पंछियों को जाते देखा है आसमान गिरते हुए दूसरी छोर नज़र आता है बस और कभी -कभी कुछ मौसमी मछुआरे अनायास ही जीविका ढूंढते इस सिथिर पानी में इस बदलते,
आधुनिकता के दौर में विलीन होती
वो नदी
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